Type Here to Get Search Results !

कारवां गुज़र गया || - गोपालदास "नीरज" की रचना

Top Post Ad

गोपालदास "नीरज" भारतीय साहित्य के मशहूर कवि एवं गीतकार थे। वे हिंदी भाषा में अपनी शानदार कविता और गीतों के लिए जाने जाते थे। उन्हें "नीरज" के नाम से भी जाना जाता है। गोपालदास "नीरज" का जन्म 4 जनवरी, 1925 को मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के ग्राम बघेलाखोह के एक छोटे से गाँव में हुआ था। 

नीरज की कविताएँ भारतीय साहित्य में अद्भुत मानी जाती हैं और उनकी कविताओं का प्रभाव आज भी लोगों के दिलों में बसा है। उनकी कविताओं में श्रृंगार, भक्ति, वीरता, देशभक्ति और प्रकृति के सौंदर्य का प्रतिबिंब दिखाई देता है। उनके साहित्यिक योगदान ने उन्हें भारतीय साहित्य के महान कवियों में एक विशिष्ट स्थान दिलाया है।



कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

एक कविता रोज़ में आज पढ़िये कवि गोपालदास 'नीरज' की कविता.

कारवां गुज़र गया 

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। 

प्रस्तुत कविता 'कारवां गुज़र गया' का एक वर्शन फ़िल्म 'नई उमर की नई फसल' में एक गीत के रूप में भी देखा और सुना जा सकता है, जिसे मुहम्मद रफ़ी ने गाया है.

Below Post Ad

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Learn Digital Marketing